गाँव की चुप्पी में छुपी चीख: मनीषा के दर्द से गुज़रता हरियाणा
प्रस्तावना
हरियाणा के एक छोटे से गाँव की सुबह आम दिनों की तरह शुरू हुई थी। खेतों की मेड़ों पर ओस की बूँदें चमक रही थीं, चूल्हों से धुआँ उठ रहा था और बच्चे अपनी किताबें सँभालकर स्कूल की ओर जा रहे थे। मगर उसी दिन की दोपहर ने एक ऐसी ख़बर दी जिसने न केवल एक परिवार बल्कि पूरे प्रदेश को हिलाकर रख दिया। यह कहानी है मनीषा की, एक युवा शिक्षिका की, जिसकी मौत ने समाज, पुलिस और राजनीति सभी को कठघरे में खड़ा कर दिया।

मनीषा कौन थी
मनीषा एक साधारण परिवार से ताल्लुक रखती थी। उम्र केवल उन्नीस वर्ष थी। वह पास के एक प्ले स्कूल में पढ़ाती थी और नर्सिंग कॉलेज में दाखिला लेने की तैयारी कर रही थी। उसकी महत्वाकांक्षाएँ बड़ी नहीं थीं, पर स्पष्ट थीं। वह बच्चों को पढ़ाना चाहती थी, पढ़ाई आगे बढ़ाना चाहती थी और अपने माता-पिता को सहारा देना चाहती थी। परिवार और गाँव के लोग उसे शांत, विनम्र और मेहनती मानते थे।
गुमशुदगी और सनसनी
11 अगस्त की सुबह मनीषा रोज़ की तरह घर से निकली। उसके हाथ में किताबें थीं और चेहरा सपनों से भरा हुआ था। मगर उस दिन वह न तो स्कूल पहुँची और न ही कॉलेज। शाम होते-होते परिवार परेशान हो गया। तलाश शुरू हुई लेकिन कोई सुराग नहीं मिला। जब पुलिस को सूचना दी गई तो शुरुआत में मामला गंभीरता से नहीं लिया गया। यही लापरवाही आने वाले दिनों में सबसे बड़ा सवाल बन गई।
शव की बरामदगी
13 अगस्त की दोपहर सिंघानी गाँव के पास एक खेत से मनीषा का शव बरामद हुआ। शरीर की हालत देखकर हर कोई सन्न रह गया। गले पर गहरे घाव थे, कपड़े अस्त-व्यस्त थे और चेहरा बुरी तरह बिगड़ चुका था। पूरे गाँव में शोक और गुस्से की लहर दौड़ गई। परिवार की चीखें और भीड़ का आक्रोश मिलकर एक ऐसा वातावरण बना रहे थे जिसमें हर कोई जवाब मांग रहा था।
पोस्टमार्टम की उलझन
शव का पोस्टमार्टम हुआ। पहली रिपोर्ट में साफ कहा गया कि गले पर गंभीर चोटें हैं और हत्या की आशंका है। लेकिन कुछ ही दिनों बाद रोहतक पीजीआई की दूसरी रिपोर्ट आई जिसने स्थिति बदल दी। इसमें लिखा गया कि मनीषा के पेट में कीटनाशक के अंश पाए गए हैं, यानी मौत आत्महत्या से भी हो सकती है। इतना ही नहीं, दुष्कर्म की संभावना को भी खारिज कर दिया गया। इससे परिवार और ग्रामीणों का भरोसा पूरी तरह टूट गया।
लोगों का गुस्सा बढ़ता गया और उन्होंने तीसरे पोस्टमार्टम की माँग की। यह पोस्टमार्टम दिल्ली एम्स में हुआ। वहाँ यह बात सामने आई कि गले की हड्डियाँ ही गायब हैं। सवाल यह उठा कि यदि यह आत्महत्या थी तो हड्डियाँ कैसे गायब हुईं। इसने मामले को और रहस्यमय बना दिया।
जनता का गुस्सा और विरोध
परिवार ने शव का अंतिम संस्कार करने से इनकार कर दिया। पूरा गाँव धरने पर बैठ गया। सड़कें जाम हो गईं, बाज़ार बंद हो गए और प्रशासन को इंटरनेट बंद करना पड़ा। नौ दिन तक मनीषा का शव अंतिम संस्कार की प्रतीक्षा करता रहा।
गाँव की औरतें आँसुओं में थीं। वे कहती थीं कि अगर हमारी बेटियाँ ही सुरक्षित नहीं तो हमें इस समाज पर गर्व क्यों होना चाहिए। युवाओं ने नारे लगाए और सोशल मीडिया पर हैशटैग चलाए। पूरे हरियाणा में यह केस चर्चा का विषय बन गया।
प्रशासन और राजनीति पर दबाव
विरोध इतना तेज हुआ कि सरकार को झुकना पड़ा। स्थानीय पुलिस अधिकारियों को निलंबित किया गया, जिले के एसपी को हटाना पड़ा और अंततः मुख्यमंत्री ने मामले की सीबीआई जांच की घोषणा की। मगर सवाल यह है कि अगर जनता आवाज़ न उठाती तो क्या यह कदम उठाया जाता।
नौ दिन बाद अंतिम संस्कार
आखिरकार नौ दिन बाद परिवार ने अंतिम संस्कार किया। छोटे भाई ने अपनी बहन को मुखाग्नि दी। पूरा गाँव उस यात्रा में शामिल हुआ। यह केवल एक शव यात्रा नहीं थी बल्कि समाज के आक्रोश की यात्रा थी। हर चेहरे पर आँसू और हर मन में सवाल थे।
हत्या या आत्महत्या
तीन अलग-अलग पोस्टमार्टम रिपोर्ट्स ने मामले को और उलझा दिया है। अगर यह आत्महत्या थी तो गले पर गहरे घाव क्यों हैं। अगर हत्या थी तो सबूत गायब क्यों किए गए। और गले की हड्डियाँ आखिर कहाँ गईं। इन सवालों के उत्तर आज तक किसी के पास नहीं हैं।
सामाजिक सन्दर्भ
मनीषा का केस केवल अपराध की कहानी नहीं है, बल्कि यह उस समाज का चेहरा भी है जहाँ बेटियाँ आज भी सुरक्षित नहीं। यह उस सिस्टम की नाकामी है जहाँ पुलिस शुरुआती शिकायत को गंभीरता से नहीं लेती और बाद में दबाव पड़ने पर ही कार्रवाई करती है।
यह घटना हर माँ-बाप के दिल में डर भर देती है। हर बेटी की आँखों में यह सवाल तैरता है कि क्या वह घर लौट पाएगी। यह डर केवल अपराध का नहीं बल्कि असुरक्षा के उस माहौल का है जो हमारे चारों ओर फैल चुका है।
मीडिया और सोशल मीडिया की भूमिका
मीडिया ने इस केस को प्रमुखता दी। अखबारों ने इसे पहली खबर बनाया और टीवी चैनलों ने लगातार बहस चलाई। सोशल मीडिया पर युवाओं ने न्याय की मांग उठाई। यही दबाव था जिसने सरकार को सीबीआई जांच के लिए मजबूर किया।
आगे की राह
अब यह केस सीबीआई के पास है। जनता की निगाहें इसी पर टिकी हैं कि क्या सच सामने आएगा या यह मामला भी धीरे-धीरे फाइलों में दब जाएगा। परिवार की केवल एक ही मांग है—उनकी बेटी के साथ क्या हुआ, यह साफ-साफ बताया जाए और दोषियों को सख्त सज़ा दी जाए।
निष्कर्ष
मनीषा अब इस दुनिया में नहीं है, मगर उसका नाम न्याय की पुकार बन चुका है। उसकी मौत हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हमारी चुप्पी भी कहीं अपराध की साझेदार नहीं। गाँव की चुप्पी में छुपी यह चीख हर किसी को सुनाई दे रही है। सवाल यह है कि क्या हम इसे सुनकर जागेंगे या फिर इसे भी अनसुना कर देंगे।
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